Sunday 4 December 2016

भारत में गरीबी पर निबन्ध

भारत में गरीबी पर निबन्ध 

भारत में गरीबी पर निबन्ध 

प्रस्तावना:

वर्ष 1996-97 में राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त कई भ्रम टूटे हैं । विगत चुनावों के परिणामों ने देश के सभी राजनीतिक दलों की कलई खोल दी है । अचानक यह रहस्य भी बेपर्दा हो गया कि गरीबी घटी नहीं, बल्कि बड़ी है । आने वाले समय में यह देश की सबसे गम्भीर समस्या होगी ।

चिन्तनात्मक विकास:

वर्तमान समय में चहुँ ओर से गरीबी मिटाने की बात सुनाई देती है, पर क्या मौजूदा आर्थिक व्यवस्था के दायरे में गरीबी मिटाना सम्मत है ? अगर सम्भव है तो उसके लिए नीति सम्बंधी दिशा क्या हो सकती है ? पहली बात यह कि गरीबी के उच्चन और जनता की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए तीन चीजें जरूरी हैं ।
पहली यह कि बिकास की दर पर्याप्त रूप से ऊंची हो, जिससे उपभोग के लिए कुल उपलब्ध साधनों में उपयुक्त ढंग से बढ़ोतरी होती रहे । दूसरे, यह बिकास ऐसे ढंग से होना चाहिए, जिससे खुद विकास की प्रक्रिया उपभोग के इन साधनों का काफी हद तक समानतापूर्ण वितरण सुनिश्चित कर सके ।
तीसरे, इस तरह को बिकास हासिल करने के दौरान भी, गरीबी उज्यूलन के कुछ फौरन तथा अन्तरिम कदम उठाये जाने चाहिए, ताकि गरीबों को हस विकास के फल अपने पास तक पहुंचने का इन्तजार न करना पड़े ।

उपसंहार:

आज गरीबी की समस्या जटिलतम होने की पूरी सम्भावना है । अगर इस समस्या पर समय रहते पुनर्विचार नही किया गया और इसे राजनीतिक अह्विक चर्चा के केन्द्र में फिर से नहीं जाया गया, तो पूरा देश भयावह, असन्तुलित और अन्यायकारी कत्वइत समृद्धि के रास्ते पर बढ़ लेगा, जिसका अंतिम परिणाम किसी भी तरह लाभकारी नहीं होगा ।
गरीबी का उम्पूलन कभी एक महान लक्ष्य, एक पवित्र धर्म समझा जाता था, लेकिन पिछले कुछ समय से गरीब और उसकी गरीबी, दोनों राजनीतिक खेलों के मोहरे बन गए हैं । जैसे जिसकी गोटी ठीक बैठ जाए, उसी ढंग से राजनीतिक दल और एक के बाद एक बनी सरकारें भी गरीबों को दांव पर लगाती रही हें और अब भी लगा रही है ।
इससे राजनेताओं की अपनी खिचड़ी तो पक जाती है, लेकिन गरीब भूखा ही रहता है । फुटबॉल की तरह ठोकरें तो गरीब खाता रहा है, लेकिन जीत का श्रेय अथवा हार का दोष, दूसरों को मिलता रहा है । अधिक पीछे न जाएं और पिछले ढाई दशकों में गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को ही देखें तो परिणाम यही दिखाई देता है कि देश में गरीबी का पुन: अवतरण हो गया है और हम राजनीतिक रूप से फिर ‘गरीबी हटाओ’ युग में पहुंच गए हैं ।
अगर यह रहस्योदघाटन हो जाए कि जिन करोड़ों व्यक्तियों की आखों के आसू पोंछने के लिए बापू ने अहिंसक आन्दोलन चलाया था, उनकी संख्या और उनकी आखों में आसुओं की मात्रा घट नहीं बल्कि तेजी से बढ़ रही है, तो देश में प्रतिवर्ष मनाये जाने वाला उत्सव एवं समारोह निरर्थक और बेमानी से लगने लगते हैं ।
देश के आर्थिक विकास के लिए हमने पंचवर्षीय योजनाओं के सहारे सुनियोजित कार्यक्रम चलाए और अब हम नौवीं पंचवर्षीय योजना की तैयारी में लगे हें, लेकिन इसी दौरान यह पता लगने पर कि समाज के जिन वर्गों का उत्थान इन योजनाओं का लक्ष्य रहा है, उनकी सही स्थिति और संख्या का भी पता नहीं है, योजनाकारों के सारे कार्यक्रम अस्त-व्यस्त हो गए हैं ।
देश में गरीबी की असली सख्या कितनी है, वे किस नारकीय दशा में रहते हैं, उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी-कपड़े की समस्याओं का क्या हल है, इसका सही आकलन जब तक नहीं होगा, तब तक उन समस्याओ का निदान कैसे हो सकेगा । यह दुविधा योजनाकारों के सामने आज भी है लेकिन इसका कोई ठोस उपाय खोजने के बजाए, अब भी राजनीतिक नजरिए से, वोटों के हानि-लाभ की नजर से इस समस्या को हल करने की चेष्टा की जा रही है ।
लोकसभा के पिछले आम चुनावों से कुछ पहले, सरकार ने दावा किया था कि देश का आर्थिक् विकास तेजी से हो रहा है, लोगों को भरपेट खाना मिलता है, अनाज का निर्यात होने लगा है और कगाली (गरीबी की रेखा से नीचे) की हालत में रहने वालो की संख्या अब केवल 18 प्रतिशत रह गई है ।
दस वर्ष पहले यह संख्या ग्यारह प्रतिशत अधिक थी । तब देश को आशा बंधी र्थ कि गरीबी अगर इसी तेजी से मिटती रही तो जल्दी ही देश में कोई गरीब नहीं रहेगा । लेकिन जब नौवीं योजना की तैयारी चलने लगी और ठोस धरातल पर पैर रखने का समय आया तो पता चला कि गरीब कम नहीं हो रहे, आकड़ों और फार्मूलों के आवरण से उन्हें लुप्त करने क् प्रयास किया जा रहा है ।
यह आवरण जब उठाया गया तो स्पष्ट हुआ कि अवास्तविक पैमाने बनाक केवल चुनावी हित के लिए गरीबी की भयावहता को ढकने का प्रयास किया जा रहा था । लेकिन कोई भी आकडा दिया जाए, उससे वास्तविकता को छुपाया नहीं जा सकता ।
गरीब तो गरीब रहेगा, भले ही सरकारी फाइलों में उसे कितना ही सम्पन्न बना दिया जाए । गरीबी मिटाने ब दावा करके, गरीबों की संख्या कम करके दिखाने से राजनीतिक लाभ क्या मिला, यह अल विश्लेषण का विषय है किंतु इतना निश्चित है कि इससे गरीब लाभान्वित नहीं हुआ, वचित अवश्य हुआ है और हमारी पूरी विकास प्रक्रिया को आघात लगा है ।
राजनीतिज्ञों को अब यह सोच ही होगा कि अपने तात्कालिक लाभ के लिए वह देशवासियों के दीर्घकालिक हितों की कित बलि दे सकते हैं । यह तो नहीं कहा जा सकता कि स्वतन्त्रता के बाद भारत ने कोई तरक्की नही की है । हम प्रगति की गति, कई अन्य देशों के मुकाबले धीमी बहुत है लेकिन हम आगे बड़े हैं ।
लगभग शु की स्थिति से आरम्भ करके आज हम कई क्षेत्रों में अति विकसित देशों को भी बराबरी के सब देने लगे हैं । बढ़ती महंगाई का एक दूसरा पहलू यह है कि यह मध्यम आयु वर्ग को ही अधिक पीड़ित करती है । मध्यम वर्ग की आय चाहे उस अनुपात में न बड़ी हो जितने उसके च् बढे हैं, पर उसकी जीवन पद्धति में सुधार आया है ।
उसके जो खर्च बड़े हैं, वह विलासिता नहीं बड़े लेकिन उसने अपनी सुविधाओं में अवश्य वृद्धि की है । ये सुविधाएं निम्न आय वर्ग भ्त्र गरीब माने-जाने वाले वर्ग की ओर से भी मिली हैं और मध्यम आय वर्ग के खर्च का एक हिस्सा इसी निचले वर्ग की ओर गया है । फिर भी, यह सच है कि जिस तेजी से अमीर आइा धनी हो रहे हैं, गरीबो का उद्धार उस गति से नही हो रहा है ।
आर्थिक और वैज्ञानिक शोध प्रतिष्ठ के हाल के एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में अमीरी और गरीबी के बीच का अन्तर निरन्तर रहा है और नए आर्थिक परिवेश में गरीबी का अभिशाप अधिक कष्टदायी सिद्ध हो रहा है गरीबी और अमीरी एक सापेक्ष स्थिति है ।
किसी एक परिस्थिति में निचले वर्ग को जो अमीर दिखाई देता है, उच्च वर्ग के लिए वही निर्धन भी हो सकता है । फिर भी, यह आवश्यक समझा गया कि गरीबी का एक मापक तय किया जाए और जो व्यक्ति उस मापक से भी कम स्थिति में जी रहे हो, उनकी स्थिति में सुधार के लिए कदम उठाए जाएं ।
गरीबी की स्थिति ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अलग-अलग है इसलिए दोनों के लिए अलग मानक भी निर्धारित किए गए । यह माना गया कि अगर किसी व्यक्ति को प्रतिदिन ग्रामीण क्षेत्र में 2400 और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी (पौष्टिक भोजन तत्व) नहीं मिल पाते तो उसे दरिद्र समझा जाएगा और उसका स्तर ऊंचा उठाने की योजनाएं बनाई जाएंगी ।
किसी व्यक्ति को कितनी कैलोरी मिल पाती है, इसका सही अंदाजा लगा पाना संभव नहीं था, इसलिए यह उपाय किया गया कि कैलोरी की इतनी न्यूनतम मात्रा पाने के लिप कितने धन की आवश्यकता होगी । 1973-74 के मूल्यों के आधार पर यह तय किया गया कि अगर किसी व्यक्ति का मासिक व्यय ग्रामीण क्षेत्र में 49 रुपए 9 पैसे और शहरी क्षेत्रों में 56 रुपए म्र पैसे से कम है तो उसे दरिद्र की श्रेणी में माना जाएगा ।
इसी मात्रा को गरीबी की रेखा माना गया । 1992-93 के मूल्यों पर गरीबी की रेखा 264 रुपए मासिक प्रति व्यक्ति आय तय की गई है । इस मानक को मान्यता मिल जाने के बाद राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन को यह काम सौंपा गया कि देश में, प्रत्येक राज्य में शहरी और देहाती इलाकों में ऐसे लोगों की संख्या का पता लगाए जो इतना व्यय भी नहीं कर पाते थे-दूसरे शब्दों में जिनकी आय इतनी नहीं थी कि अपना पेट भरने के लिए भी इतना खर्च कर सकते हैं ।
यह सर्वेक्षण हर पांचवें वर्ष किया जाता है और उससे प्राप्त सूचनाओं और आंकडो का विश्लेषण करके हर पांचवें वर्ष गरीबी के अनुमान लगाए जाते हैं और उन्हें प्रकाशित एक जाता है । लेकिन जब 1987-88 और उसके बाद 1993-94 वर्षो के लिए ये अनुमान जारी किए गए गे उन पर कई क्षेत्रों में सदेह और शंकाएं व्यक्त की गई ।
यह धारणा बनी कि गरीबी के जो आंकड़े बताए जा रहे हैं, उनके आकलन में या तो कुछ कमी है अथवा जानक्ष्यं कर राजनीतिक सिद्धि के लिए तथ्यों को छिपाया और जनता को भ्रमित किया जा रहा है । 1987-88 में बताया कि गरीबी उन्तुलन के कार्यक्रमो के परिणामस्वरूप देश में गरीबी-रेखा से नीचे रहने वालों ही संख्या 51 प्रतिशत से घट कर 25.49 प्रतिशत रह गई है और 1993-94 में तो यह बस 1682 ही थी ।
एक तरफ कड़े गरीबी की स्थिति में कमी दिखा रहे थे, दूसरी तरफ गरीब वस्तुत: अधिक देखाई देते थे । बेरोजगारों की संख्या निरंतर बढ़ रही थी । उद्योगों में कोई विशेष वृद्धि नहीं रही थी, कृषि उत्पादन में ठहराव आने लगा था ।
केंद्र सरकार के बजट इसकी पुष्टि नहीं रह रहे थे कि गरीबी वास्तव में कम होने लगी है । अगर ऐसा होता तो गरीबी उन्तुलन कार्यक्रमो हो रुहे खर्च में कहीं तो कमी दिखाई देती जबकि असलियत यह थी कि खाद्यान्न पर दीख रही सब्सिडी की मात्रा हर साल बढ़ती जा रही थी और गैर-योजना व्यय का सबसे बड़ा भाग नती जा रही थी ।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए भी हर साल पहले से अधिक व्यवस्था पड रही थी हर वर्ष ग्रामीण विकास या बाल विकास कार्यक्रमों के लिए आवंटित धन की बढ़ती जा रही थी । काम के बदले अनाज को अब भी भुखमरी और अकाल के विरुद्ध सबसे भावी उपाय समझा जा रहा है ।
इन विसंगतियों का कारण समझने और उनका निदान करने के लिए योजना आयोग ने एक विशेषज्ञ दल का गठन किया, जिसे गरीबों की संख्या और अनुपात का अध्ययन करने का दायित्व सौंपा गया । प्रोफेसर डी.टी. लकड़ावाला की अध्यक्षता में गठित इस विशेषज्ञ दल ने जो रिपोर्ट दी है; उससे गरीबी के आकलन और अनुमान में भारी त्रुटियों को दर्शाया गया है ।
इस विशेषज्ञ दल ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि गरीबी की रेखा तय करते हुए केवल कैलोरी की मात्रा और उसकी प्राप्ति के लिए होने वाले व्यय को ही ध्यान में रखा गया जबकि इस वर्ग की अन्य जरूरतों-बीमारी में देखभाल और दवाओं का खर्च, रहने के लिए आवास, कपड़ों और अन्य अनिवार्यताओं को नजरअंदाज कर दिया गया ।
इस विशेषज्ञ दल ने इन कारकों को भी शामिल करके गरीबी की जो दूसरी रेखा प्रस्तावित की है, उससे पिछले अनुमान बौने साबित होने लगे । उदाहरण के लिए पता लगा कि नए ढंग से विचार करने पर 1987-88 में ही कुल आबादी में दरिद्रों की संख्या का अनुपात ? प्रतिशत था और 1993-94 में भी वह प्रतिशत से नीचे नहीं पहुंचा ।
योजना आयोग ने विशेषज्ञ दल के आकलन को अपनी भावी योजनाओं का आधार बनाने का निश्चय किया है । पिछले वर्षो से चल रहे आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए सरकार ने उदारता की जो नीतियां अपनाई हैं, उनमें सरकार अपना ध्यान अब मुख्यत: अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा करने पर केंद्रित कर रही है लेकिन अगर विशेषज्ञ दल की सिफारिशों को मान कर यह स्वीकार कर लिया जाए कि गरीबी का प्रतिशत अब भी कुल आबादी के एक-तिहाई से अधिक है तो वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारियां पहले से कहीं अधिक बढ़ जाएंगी ।
वित्त मंत्रालय पर पहले से ही राजनीतिक दबाव है कि ग्रामीण विकास और गरीबी उन्तुलन के लिए अधिक धन दिया जाए । गरीबी के नए आकलन को स्वीकार कर लेने से वित्तीय घाटा सह रही अर्थव्यवस्था पर बोझ कहीं अधिक बढ़ जाएगा ।
सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली को जो नया रूप दे रही है, उसमें से अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग को बाहर रखा जाएगा, लेकिन गरीबी का कड़ा वर्तमान अनुमान के दुगुने से भी अधिक हो जाने के कारण सरकार का सब्सिडी पर होने वाला अनुमानित खर्च भी उसी मात्रा में बढ़ जाएगा ।
मूल प्रश्न यह है कि क्या पिछले दो दशकों से चली आ रही यह मान्यता ठीक है कि अर्थव्यवस्था में अधिक पूंजी निवेश और विकास की ऊंची दर से गरीबी मिटाने में वस्तुत: मदद मिलती हे ? हमारे देश में आकड़ों में किए गए परिवर्तन ने इस आस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं । लेकिन गरीब तो हर देश में होते हैं ।
अपने पड़ोसी चीन का ही उदाहरण लें । चीन ने पिछले आठ वर्षो में अपनी आर्थिक विकास की दर दुगुनी कर ली, संसार की हर बहुराष्ट्रीय कंपनी यहां पूंजी लगा रही है और उसने भारत की अपेक्षा दस गुना अधिक पूंजी आकृष्ट कर ली हैं लेकिन क्या इससे चीन में गरीबों की हालत में सुधार आया है ?
वहां के लौह आवरण से छन-छन कर जो खबरें बाहर आ रही हैं, उनसे यही संकेत मिलता है कि चीन की समृद्धि कुछ खास वर्गो और क्षेत्रों तक सीमित है और वहां की आम जनता अब भी उतनी ही त्रस्त और निर्धन है ।
गरीबी का सीधा संबंध कृषि विकास और उत्पादन से जुड़ा हे, लेकिन भारत में कृषि विकास की जो उपेक्षा की गई, उससे गरीबी को मिटाने में कोई मदद नही मिली । उसी उपेक्षा के कारण कभी गेहूं कभी चीनी और कपास, तो कभी खाद्य तेलों की कमी दिखाई देती है और उसका असर सबसे अधिक गरीबों पर पड़ता है ।
आज भी उद्योगों को रियायतें, ण सुविधा, पूंजी बाजार की स्थिति ओर मंदी की चर्चा तो है, परंतु किसानों को समय पर बिजली नहीं मिलती, सिंचाई के लिए पानी नहीं है । खाद उपलब्ध नही हैं या अच्छे बीज नहीं मिलते हैं, ऐसी आवाज उठाने वाले कुछ गिने-चुने लोग ही रह गए हैं ।
यह तथ्य अब बहुत कम लोगों को चौंकाते हैं कि खेती के काम से जुड़े 85 प्रतिशत किसान अब केवल खेती नहीं करते, वे खेतिहर मजदूरी का भी काम करने को विवश हैं और गांवों में रहने वाले 62 प्रतिशत पुरुष और 35 प्रतिशत महिलाएं मजदूरी करके ही अपना परिवार पाल रहे हैं ।
जब तक इस स्थिति में सुधार नहीं होगा, गरीबी का उन्मूलन एक दिवास्वप्न ही बना रहेगा । दावा किया जाता है कि किसानों की फसल का सरकारी वसूली या समर्थन मूल्य बढ़ाया जाता रहा है जिससे किसानों को लाभ होता है ।
लेकिन एक तथ्य को नजरों से चभोझल कर दिया जाता है कि अधिकांश किसानों के पास जोत इतनी कम है कि वह अपने खाने लायक अनाज भी कठिनाई से उपजाते हैं । वसूली मूल्य पर अनाज बेचने वालों की मजबूरी भी यही होती है कि उन्हें अन्य कामों के लिए फसल से होने वाली आमदनी का ही सहारा होता है ।
बहुत कम किसान ऐसे हैं जो वसूली मूल्य में बढ़ोतरी का फायदा उठा पाते हैं । लेकिन वसूली मूल्य बढ़ने से सार्वजनिक वितरण के लिए जारी आवश्यक वस्तुओं के दाम भी बढ जाते हैं और छोटे व मझोले किसानों सहित आम गरीब भी उन दामों की चक्की में पिसने लगता है ।
राशन की दुकान से जिन दामों पर आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध हैं, उनकी तुलना अगर गरीबी रेखा से करें तो यह साफ दिखाई देता है कि गरीबी पर प्रहार, उसके उन्तुलन के प्रयास हर सरकार की नीति जरूर रही है, लेकिन यह किसी की नीयत भी थी, इस पर गंभीर संदेह है ।
पिछले दशक में गरीबी घटने की जो धीमी रफ्तार रही है, वह यही बात सिद्ध करती है कि पिछले दो दशकों में गरीबी उन्मूलन के नाम पर खर्च किए गए अरबों रुपयों के बावजूद, नीयत की कमी से, गरीब वहीं पर अटका ध्या है ।
जमीनी सच्चाई से जुडे गैर-सरकारी संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं के अनुभव यही बताते है कि अगर गंभीरता से गरीबों के उत्थान के लिए काम करना है तो उसके लिये गरीबों को पेट भरने लायक भोजन देने की व्यवस्था के साथ-साथ उनके स्वास्थ्य की देखभाल को भी उतनी ही प्राथमिकता देनी होगी ।
पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने के साथ उसे रोगों और व्याधियों से भी बचाना होगा ताकि स्वस्थ शरीर से वह अपनी रोजी-रोटी कमाने लायक बना रह सके । रोजी की व्यवस्था के लिए भी सरकार को अपनी नीतियों में आमूल परिवर्तन करना होगा । आधुनिक युग में भी महात्मा गांधी का चरखा, भारत की ग्रामीण तकनीक का प्रतीक चिन्ह बना हुआ है ।
अधिक उत्पादन के लिए भारत को ऐसी तकनीक की आवश्यकता है जो उसकी श्रम शक्ति को भी काम दे सके । आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसलिए भी भारत को अपना उत्पादन केंद्र बनाने, उसके लिए पूंजी निवेश करने को तैयार है कि भारत में उन्हें सस्ता श्रम मिला है ।
लेकिन अगर हमने केवल पूंजी के बल पर उपलब्ध तकनीक को ही प्रधानता दी और श्रम शक्ति को काम नहीं दिया तो उसके वही परिणाम होंगे जो अन्य देशों के दिखाई देने लगे हैं । जापान और कोरिया इसके प्रमाण है कि भारी मात्रा में विदेशी पूंजी निवेश के बिना, अपनी श्रम शक्ति के सहारे भी तकनीकी और औद्योगिक विकास किया जा सकता है ।
आज भी ये दोनों देश अपने सकल राष्ट्रीय उत्पाद का दस प्रतिशत स्वास्थ्य और चिकित्सा पर खर्च करते हैं जबकि भारत इन मदों पर केवल 1.6 प्रतिशत व्यय करता है । यह अलग बात है कि इतनी दरिद्रता में जीने के बाद भी भारतीय गरीब संतुष्ट रहता है और भाग्य पर भरोसा करता है, लेकिन अन्य देशों में ऐसा नहीं है ।
आज दुनिया की करीब 15 प्रतिशत आबादी भूख और कुपोषण की शिकार है । संसार 48 देशों की 55 करोड़ जनता आज विश्व की कुल आय के मात्र एक प्रतिशत पर गुजारा; रही है और भारत का स्थान उनमें प्रमुख है । धनी देशों में एक व्यक्ति के एक समय के ओर पर जितना खर्च होता है, वह भारत में प्रति व्यक्ति मासिक आय से भी कहीं अधिक है ।
यह सि भला कितने समय तक और चलती रहेगी ? पचानवे करोड़ की जनसंख्या वाले देश में दरिद्रता रहे, यह भारत ही नहीं, पूरे विश्व अर्थव्यवस्था हेतु घातक है, लेकिन हमने दरिद्रता-निवारण के इस काम को कभी गंभीरता से लिया ।
आजादी के तत्काल बाद हमने विकास की जो नीतियां अपनाई, उनमें सोवियत ढांचे अनावश्यक प्रभाव रहा भारत ने अपने विकास क्रम के प्रारम्भ से ही अपनी विशाल जनसंख्या अपनी महत्वपूर्ण सम्पत्ति नहीं, बल्कि विपत्ति के रूप में समझा और ऐसे मशीनी विकास को लगा बढ़ावा दिया जिसमे मानव शक्ति का महत्व गौण था ।
परिणामस्वरूप भारत के अपने शिल्प, और कुटीर उद्योग, कला और पारंपरिक रूप से चलते आ रहे अन्य धंधे धीरे-धीरे खत्म होने इन धधों से देहातों में रहने वाली अधिकांश जनता की आय होती थी, लोगो की जरूरतें स्था स्तर पर ही पूरी कर ली जाती थीं और गरीबों का पेट पलता था ।
इन धंधों के उजड़ने से गा का सहारा छिनता रहा लेकिन विशालकाय कारखानों में मशीनों की गडगडाहट में उनका क् सुनने की फुर्सत किसी को नहीं थी । सुनियोजित आर्थिक विकास का नारा भी धीरे-धीरे सारी योजनाओं के केंद्रीकरण का बनता गया और स्थिति यहां तक पहुंच गई कि अगर किसी गांव में एक नाले पर छोटी-सी पाई भी बनानी होती थी तो उसे पहले योजना कार्यक्रम में शामिल किया जाता फिर उसके लिए का आवंटन और तत्पश्चात काम शुरू करने के लिए लम्बी प्रतीक्षा ।
इस केंद्रीकरण से जहां विद कार्यों में अत्यधिक विलम्ब होने लगा और उनकी लागत लगातार बढ़ने लगी, वहां सामाजिक से गांव और शहरों के निवासी अपनी कठिनाइयों को हल करने के प्रति उदासीन और ब सरकारी सहायता पर अधिक से अधिक निर्भर होते गए ।
विकास के कामों में जनता की भागी घटती गई, लेकिन सरकारी साधनो के सीमित होने से विकास कार्यों पर जो असर पड़ा, देश के गरीबों को सीधा आघात लगा । सिंचाई परियोजनाए अधूरी पडी रहीं, खेत सूखते गाव के गांव बाढ में डूबते रहे, लोग बीमारियों से मरते रहे, उडीसा के कई जिले मुखमर्र चपेट में आ गए लेकिन सरकारी नीतियों में कोई बदलाव नहीं आया ।
जो समृद्ध और समपन्न थे, उन्होंने नया जीवन अपना लिया, कष्ट झेल कर भी सुख से रहे लेकिन जो विपन्न थे, उनके लिए कष्टों में ही जीवन बिताने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा । उनके प्रति पहले ही संवेदनशून्य होने लगा था । सरकार भी निरुपाय होकर उनकी व्यथा से अनभिज्ञ रही ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दो-ढाई दशकों तक इतनी भी चिंता नहीं की गई कि देश के स्थिति का आकलन ही कर लिया जाए । अगर राजनीतिक रूप से गरीबी हटाओ अग्नि की आवश्यकता न होती तो शायद इस ओर ध्यान नहीं जाता ।
सन् सत्तर के दशक में इस पर कुछ ध्यान दिया गया, लेकिन आज भी इस पर विवाद बना हुआ है की गरीब की परिभाषा कैसे की जाए । महात्मा गांधी दरिद्र को नारायण मानते थे, लेकीन हमारा योजना आयोग नर के रूप में भी उसकी पहचान नहीं कर पा रहा है । गरीबी क्या होती है, इसे भुक्तभोगी के सिवाय कोई नहीं जानता और वातानुकूलित कमरों में बैठकर उसका अनुमान लगा पाना सर्वथा कठिन हो रहा है ।
गइराई से देखा जाए तो गरीबी मापने के लिए अब तक जो भी पैमाने बनाए गए हैं, उन सभी के अनुसार गरीबी मिटाने के अब तक जितने प्रयास हुए हैं, उनसे गरीबी तो नहीं मिटी उल्टे गरीबों की संख्या लगातार बढती गई है । इसका एक बचाव यह कहते हुए किया जाता है कि देश की आबादी भी लगातार बढ रही है लेकिन कड़े बताते हैं कि जनसंख्या नियंत्रण के उपाय भी गरीबो तक नहीं पहुंच रहे हैं ।
योजना आयोग की अपनी रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण और पिछड़े वर्गों में परिवार कल्याण के कार्यक्रम उतने कारगर नहीं हो रहे हैं, जितने शहरी और आर्थिक रूप से सुखी परिवारो में हैं । भ्रष्टाचार का मुद्दा आज बहुचर्चित है और इसके सर्वाधिक शिकार गरीब ही हैं ।
पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी की दस वर्ष पूर्व की गई इस स्वीकारोक्ति में अब तक कोई परिवर्तन नहीं आया है कि देहातों के विकास के लिए जो धन केंद्र से भेजा जाता है उसका 15 प्रतिशत ही विकास पर खर्च होता है और बाकी धन भ्रष्ट अधिकारियों की जेब और प्रशासनिक खर्च में चला जाता है ।
इसी भ्रष्टाचार के कारण गांवों के विकास कार्य धीमे हैं, गरीबों को रोजगार नहीं मिल पाता और लोग गांवो से पलायन करके रोटी कमाने के लिए शहरी की ओर भाग रहे हैं । इससे शहरों में अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं । गरीब के लिए अगर गांव में ही रोजगार और परिवार के पालन-पोषण की व्यवस्था हो तो वह अपना घर छोड़ कर, शहरों में दर-दर भटकने और ठोकरें खाने क्यों जाएगा ।
देश के गरीब के सिर पर सबसे भारी बोझ उस कर्ज का है जो उसने अपनी तात्कालिक जरूरतें पूरी करने के लिए गाव के साहूकार से लिया है । जिसके पास आज खाने भर के लिए अनाज नहीं है, वह कल इस स्थिति में कैसे आ जाएगा कि अपना पेट भी भरे और कर्ज भी वापस करे ।
उसकी इसी असमर्थता को देखकर सरकारी बैंक भी उसे सस्ती दर पर कर्ज देने को तैयार नहीं हैं । सरकारी खानापूर्ति के लिए जिन्हें बैंक से कर्ज मिल भी जाता है उनसे उसकी वसूली के लिए जो तरीके अपनाए जाते हैं, वे रोंगटे खडे कर देने वाले हैं । ऐसे कारनामे रोज पढ़ने-सुनने में मिल जाते हैं ।
लेकिन देश के गरीब पर इससे भी बडा एक अप्रत्यक्ष बोझ है । गरीब को उस कर्ज का रंच मात्र भी लाभ तो नहीं पहुचा जो सरकार ने घरेलू और विदेशी ससाधनों से लिया है । लेकिन कर्ज की वापसी के लिए वह भी बराबर का जिम्मेदार माना जाएगा ।
भारत आज दुनिया का तीसरा सबसे बडा कर्ज लेने वाला देश बन गया है । भारत पर इस समय लगभग साढ़े तीन लाख करोड रुपये का केवल विदेशी कर्ज चढा हुआ है अर्थात् हर भारतीय नागरिक पर इस समय लगभग साढे तीन हजार रुपए का ऐसा कर्ज है जिसका उसने उपभोग नहीं किया है । जिस गरीब की आय 240 रुपए मासिक भी नहीं है, उसके लिए यह कर्ज उतारना शायद कई पीढियों का काम हो जाएगा ।
इस हालत से निपटने के लिए हमें अपनी नीतियों में बदलाव लाने होंगे । अगर संगठित औद्योगिक क्षेत्र में एक करोड़ रुपए लगाए जाएं तो उससे मुश्किल से चालीस लोगों को रोजगार मिलेगा लेकिन वही धन अगर ग्रामीण उद्योगों में लगाया जाए तो दो सौ से अधिक (पांच गुना अधिक) लोग रोजगार पा सकते हैं ।
यह याद रखना होगा कि अब भी चालीस प्रतिशत से अधिक निर्यात आय इन्हीं छोटे उद्योगों से होती है । आजकल बाजार की अर्थव्यवस्था का बोलबाला है इसी का दूसरा नाम विश्व स्पर्धा है इसमें हर वस्तु के मूल्य मांग और आपूर्ति के अनुरूप तय किए जाते हैं लेकिन जो व्यक्ति इतना दरिद्र है कि अपना पेट नहीं भर सकता, उसे इस विश्व स्पर्धा बाजार के हवाले कर देना क्या किसी भी सभ्य समाज के लिए शोभा की बात होगी ?
गरीबों के उत्थान के लिए अब तक जो भी घोषणाएं की जाती रही हैं, सरकार ने जो भी वचन अब तक दिए हैं, उनके अनुरूप काम नहीं ध्या है । योजनाएं और कार्यक्रम या तो रास्ते में धराशायी हो गए या उन्हें मात्र औपचारिकता वश चलाया गया ।
गरीबी उन्तुलन की विफल योजनाओं पर पर्दा डालने के लिए उन्हें नए-नए नामों से प्रचारित किया जाता रहा है, लेकिन सरकार की कथनी और करनी में जो अंतर रहा है, उससे गरीबो के मन में हताशा और कुंठा उत्पन्न हुई हे । अधिकांश पश्चिम देशों में सरकारी आश्वासनों और मौखिक सहानुभूति से त्रस्त गरीब अपराधों की शरण में चले जाते हें । भारत में भी सामाजिक अपराधों में वृद्धि का मूल इसी गरीबी में ढूंढा जा रहा है ।
अभी यहां जनता के धैर्य का बांध छलक अवश्य रहा है, टूटा नहीं है । इसलिए अब भी समय है कि हम अपनी नीतियों में ऐसे मोड़ ले आएं जिनसे समाज के निम्नतम स्तर के व्यक्ति का जीवन-स्तर भी ऊपर उठ सके ।

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